
हर प्राणी जिने केलिये सेही सुस्त परिवेश ढुन्णने के साथ साथ खुद आछे तरा जन्म हो उर खुद के जिन्देगी खुद के नुमाइश पे सम्भाले पेहला लक्ष बनाते हे। चाहे उ अमीर हो इआ गरीब उस में कुई लेना देना नेहि। थोड़ी सी कमी में साहारा बहत हैरान करता है।
कुश् लब दौ भैया थै एक हिँ गाँव कै। गाँव के नाम श्यामसुन्दरपुर था। मा दोन को फरबरिस करने में कुई कमी नेहि रखे थे। बाप की गरीब दोन के पढ़ाई में बहत दिकत् आने कि बाबजुद दोनों हिमत ठान के पढ़ाई किये पर ज्यादा दिन उ नेहि गैया। मा जी के मत होगेया। बाप कि क्षेत में जो कमाई होता था, घर चलने के साथ दो बेटे के पढ़ाना नामुकिन हो राहा था ।
कुश पिता जी के मेहनत देख के हात बटाने के लिये फैसला किया उर काम करने गैया। सायद भगबान कि उर कुछ ईछा थी। कुश के साथ हादसा होगेया। रास्ते में जो आदमि जारेहे थे हस्पताल लेगेये बाप को खबर दिये ।बाप हरिप्रसाद सुन के दौड़ने लगे सस्पताल जाने केलिये। पास में जो रुपया था ऊ इलाज करने केलिये बहत कम् हे। अस्तरप्रचार करने के बाद तबाइ खरीद ने कैलिये ना था पास में रुपया।
जमीन बेच के जितने आया रुपया कुश को घर ले आये थोड़ा बहुत इलाज कर के पर जमीन पाश में ना रहने कि बजाये लब उर बाप हरिप्रशाद बकाया रुपया चुक्ता करने के साथ लब के पढ़ाई कुश के इलाज घर के खर्चा उ सब उठाना केलियै निकल पड़े परन्तु कुश के हत्शेके बजाऐ आछे इलाज ना हो पाने कि कारण उ अपाहिज हो कर जिन्देगी बिताया।
लब खुद के भविष्य उज्जवल करने केलिये पिताजी उर भैया को छोड़ चलागेया। जब भेया चलागेया पिताजी क्षेत में काम करने केलियै पास में बल नेहि राहा। भैया बिदेस जाने के बाद घर को रुपया भेजना सप्ना हो गेया। कुश तब देखा आज मा जिन्दा होते भुका प्यासा रेहने केलिये नेही होता?
बाप के कान्धपे केसे कान्ध मिलायेगा उ खुद तो अपाहिज था । जो मन में हिमत नेहि हरता, दुनिया कि एसे कुइ ताकत नहीं उसे रोक लेगा। गाँव में जो पाठकक्ष था उसमें बचे को पढ़ाने के साथ हस्ततन्त काम दुसरे को सिखाके खुद बुन के बाहार देश में बेचने के साथ घर सुख स्वाछ्यन्द में चला।
बाप हरिप्रसाद अन्दर हि अन्दर सोचने लगे आखिर में कनसा बेटा मेरा अपाहिज? जो खोद के आराम सुचा बचपन से लै कर बड़ा हुनेतक पेट से काट के फरबरिस किये आँसू दिल में छुपा के उ बदल बक्त के साथ सक्ष लेकर सारे सुख दिये उ बक्त आने पे बोझ बनगेये खुद के सुख ढुण्ड लिया उ कैसे बारिश हे?
जो निकमा हो कर भी देखभाल किया उ कैसे अपाहिज बन सकता है? उहि काम करके जमीन मकान खरीद के सादी करके घर में सकुन से जिन्देगी बित राहा था। तब लब घर को लोटा जमीन बटबार करके खुद का हिसा लेने किलिये। तब पिता हरिप्रसाद बोले तुझे पढ़ाने केलिये जितना रुपया खर्चा हुआ अभि जो भि हे कुश ने कमाके किया। तुझे काहाँ से दुन्गे?
उ सब बात सुन के लब गुसा हो गेया कुश को मारने केलिये दौड़ आई तब कुश ने बुला भेया मुझे अपाहिज सोच के मेरा बुझ ना उठाने के लिये घर से सारे नाता तोड़ दिये, कहाँ कि पागलपन हे भैया? सुचिऐना कन अपाहिज? हर बक्त बाहुबल नेहि रेहता हे। घर एक माली सदृश हम एक एक फुल शदृश होते है। उ बात पहले पता हुना चाहिए।
कहते हे बक्त टलने के लिये ज्यादा बक्त नेहि लगता। त्याग सोच बुढ़ापे सकुन देता हे । खुदगर्ज बन जानेसे आखिर में कुइ साथ नेहि रेहते। अन्ग प्रत्यन्ग सुस्थ रेहकर भी आदमी अपाहिज हो जाते है।इस्सलिये केहते हैं सही सुच दिमाक में रख के काम करना चाहिए।
शान्ति लता परिड़ा